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जीवन में विकास कीजिए:-
आपका शरीर प्रतिदिन विकसित हो रहा है। प्रत्येक दिन शरीर में नए रक्त, मज्जा, तन्तुओं का विकास हो रहा है पर खेद है कि शारीरिक अनुपात में मानसिक और आध्यात्मिक विकास नहीं हो रहा। आपका शरीर बड़ा होता जा रहा है किन्तु मन बच्चों जैसा अविकसित ही पड़ा है। उसमें उन तत्वों का विकास नहीं हुआ, जिनसे मनुष्य पूर्णता प्राप्त करता है।
मन विकसित हुआ या नहीं, यह जानने के लिए निम्न प्रश्नों का उत्तर दीजिए:-
1. क्या आप आत्मनिर्भर हैं, या हीनता के भाव को, लोगों से बात करते या व्यवहार करते हुए अनुभव करते हैं?
2. मन की शान्ति या उत्साह के लिए आप दूसरों के विचारों और मन्तव्यों पर कहाँ तक निर्भर रहते हैं? दूसरों के कुत्सित संकेत क्या आपको पस्त हिम्मत कर...
यौवन की जिम्मेदारी
युवावस्था जीवन का वह अंश है, जिसमें उत्साह, स्फूर्ति, उमंग, उन्माद और क्रिया शीलता का तरंगें प्रचण्ड वेग के साथ बहती रहती है। अब तक जितने भी महत्वपूर्ण कार्य हुए हैं, उसकी नींव यौवन की सुदृढ़ भूमि पर ही रखी गई हैं। बालकों और वृद्धों की शक्ति सीमित होने के कारण उनसे किसी महान् कार्य की आशा बहुत ही स्वल्प मात्रा में की जा सकती है।
वृक्ष बसन्त ऋतु में पल्लव, पुष्प और फलों से सुशोभित होते हैं। मनुष्य अपने यौवन काल में पूर्ण आया के साथ विकसित होता है। वृक्षों को कई बसन्त बार-बार प्राप्त होते हैं, पर मनुष्य का यौवन बसन्त केवल एक बार ही आता है, इसके बाद असमर्थता और निराशा से भरी वृद्धावस्था तत्पश्चात् मृत्यु! जिसने यौवन का सदुपयोग नहीं कर पाया, उसको हाथ मल-मल कर पक्ष तान...
चिन्ता पीडित व्यक्ति
मनुष्य के सबसे बड़े शत्रु रोग- क्षय से पीडित रोगियों में सबसे अधिक संख्या उनकी है जिन्होंने रात दिन दुश्चिन्ताएँ करके अपने शत्रु को बुलाया है। चिन्ता पीडित व्यक्ति के लक्षण:-
(1) चिन्तित व्यक्ति हमेशा दुःखी बना रहता है। उसके पेट में और सिर में प्राय: दर्द बना रहता है। स्वास्थ्य के मुख्य आधारभूत अंग पेट और सिर ही है और यह दोनों ही दुश्चिन्ता करने से भारी बने रहते हैं।
(2) दुश्चिन्ता करने वाला व्यक्ति कायर हो जाता है और कायरता की यह प्रवृत्ति विशेष रूप से उन मौकों पर परिलक्षित होती है जब उसे बाह्य संसार की वास्तविकता का सामना करना पड़ता है। उसे सदैव भयंकर हानि का खतरा अनुभव हुआ करता है। कभी कभी तो वह अकारण ही भयभीत हो जाया करता है।
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सद्विचारों द्वारा जीवन लक्ष्य की प्राप्ति
प्रत्येक मनुष्य अपने विचारों द्वारा ही अपना आत्म निर्माण करता है। क्योंकि विचार का बीज ही समयानुसार फलित होकर गुणों का रूप धारण करता है और वे गुण, मनुष्य के दैनिक जीवन में कार्य बनकर प्रकट होते रहते हैं। विचार ही वह तत्व है जो गुण, कर्म, स्वभाव के रूप में, दृष्टिगोचर होता है। मन, कर्म, वचन में विचारों का ही प्रतिबिम्ब सदा परिलक्षित होता रहता है।
मानव मनोभूमि में सत् और असत् दो प्रकार के संकल्प काम करते रहते हैं। भलाई और बुराई दोनों ही ओर मन चलता रहता है। इस द्विधा में जिधर रुचि अधिक हुई, उधर ही प्रकृतियां बढ़ जाती है। यदि असत मार्ग पर चला गया तो अपयश, द्वेष, चिन्ता, दैवी प्रकोप, शारीरिक और मानसिक अस्वस्थता दरिद्रता एवं अप्रतिष्ठा प्राप्त होती है। और यदि सत मार्ग का अनुग...
सद्विचारों द्वारा जीवन लक्ष्य की प्राप्ति (भाग 2)
अज्ञान, आसक्ति, अहंकार वासना एवं संकीर्णता के बंधनों से छुटकारा पाने को ही मुक्ति कहते हैं। आत्मा-परमात्मा का अंश होने के कारण स्वभावतः युक्त है, उसे यह कुप्रवृत्तियाँ ही अपने बंधन में बाँधकर मायाबद्ध जीव बना लेती है। इन बंधनों से छुटकारा मिलते ही आत्मा अपने वास्तविक स्वरूप में प्रतिष्ठित हो जाता है और जीवन मुक्ति का अनिर्वचनीय उपलब्ध करने लगता है।
अपनी भूल आप समझ में नहीं आती, यदि समझ में आ जाय तो उसे तुरन्त सुधार लें। रोगी यह नहीं समझता कि मैं कुपथ्य कर रहा हूँ यदि उसे ऐसा पता होता तो कुपथ्य करके प्राणों को संकट में क्यों डालता? यों तो कहने सुनने को हर एक भूल करने वाला और कुमवृध करने वाला यह जानता है कि जो कर रहे हैं वह ठीक नहीं पर ऐसा केवल बाहरी रूप से ही सोचा जाता ह...
विचारों का केन्द्र बिंदु- ’क्यों’?
जीवन एक विकट समस्या है इसमें न जाने कितने उतार- चढ़ाव आते हैं और स्मृति में विलीन हो जाते हैं। इनमें से कुछ ही विचार थोड़े समय के लिए हमारी स्मृति में रह पाते हैं पर उन पर भी हम सरसरी नजर भर डाल लेते हैं, गहराई से नहीं सोच पाते अन्यथा जीवन सबसे अधिक अध्ययन का विषय एवं ज्ञान का भंडार है। जीवन की प्रत्येक घटना के पीछे कार्यकारण परम्परा का अद्भुत रहस्य छिपा है। विचार करने पर छोटी से छोटी साधारण घटना जीवन का काया पलट कर देती है और विचार नहीं करने पर बड़ी से बड़ी घटनाओं का भी कोई असर नहीं हो पाता।
कथाओं में हम प्रायः पढ़ते हैं कि अमुक व्यक्ति को बादलों के रंग देखकर वैराग्य हो गया। अमुक को रोगी, दीन, वृद्ध एवं मृतक को देखकर संसार से उदासीनता हो गई, पर हम इनको रात दिन देखते है...
कर्मयोग का रहस्य (भाग 1)
मनुष्य−समाज की स्वार्थहीन सेवा कर्मयोग है। यह हृदय को शुद्ध करके अन्तःकरण को आत्मज्ञान रूपी दिव्य ज्योति प्राप्त करने योग्य बना देता है। विशेष बात तो यह है कि बिना किसी आसक्ति अथवा अहंभाव के आपको मानव−जाति की सेवा करनी होगी। कर्मयोग में कर्मयोगी सारे कर्मों और उनके फल को भगवान के अर्पण कर देता है। ईश्वर में एकता रखते हुए, आसक्ति को दूर करके सफलता व निष्फलता में समान रूप से रह कर कर्म करते रहना कर्म−योग है।
जैमिनी ऋषि के मतानुसार अग्निहोत्रादि वैदिक कर्म ही कर्म है। भगवद्गीता के अनुसार निष्काम भाव से किया हुआ कोई भी कार्य कर्म है। भगवान् कृष्ण ने कहा है निरन्तर कर्म करते रहो, आपका धर्म फल की चाहना न रखते हुए कर्म करते रहना ही है। गीता का प्रधान उपदेश कर...
कर्मयोग का रहस्य (भाग 2)
कर्म योगी का विशाल हृदय होना चाहिये। उसमें कुटिलता, नीचता कृपणता और स्वार्थ बिल्कुल नहीं होना चाहिए, उसे लोभ, काम, क्रोध और अभिमान रहित होना चाहिए। यदि इन दोषों के चिन्ह भी दिखाई देवें तो उन्हें एक एक करके दूर करने का प्रयत्न करना चाहिए, वह जो कुछ भी खाय उसमें से पहले नौकरों को देना चाहिये, यदि कोई निर्धन रोगी दूध की चाहना रखकर उसी के घर आये और घर में उसी के लिए दूध नहीं बचा हो तो उसे चाहिये कि अपने हिस्से का दूध फौरन ही उसे देदे और उससे कहे कि ‘हे नारायण! यह दूध आपके वास्ते है, कृपा कर इसे पीलो, आपकी जरूरत मुझसे ज्यादा है।’ तब ही वह सच्ची उपयोगी सेवा कर सकता है।
कर्मयोगी का स्वभाव प्रेमयुक्त, मिलनसार, समाज−सेवी होना चाहिए। उसे जाति, धर्म या वर्ण के वि...
कर्मयोग का रहस्य (भाग 3)
कर्मयोग, भक्ति योग, अथवा ज्ञानयोग के साथ मिला होता है। जिस कर्मयोगी ने भक्ति योग से कर्मयोग को मिलाया है उसका निमित्त भाव होता है, वह अनुभव करता है कि ईश्वर सब कुछ कार्य कर सकता है और वह ईश्वर के हाथों में निमित्त मात्र है, इस प्रकार वह धीरे−धीरे कर्मों के बन्धन से छूट जाता है, कर्म के द्वारा उसे मोक्ष मिल जाती है। जिस कर्मयोगी ने ज्ञानयोग और कर्मयोग को मिलाया है वह अपने कर्मों से साक्षी भाव रखता है। वह अनुभव करता है कि प्रकृति सब काम करती है और वह मन और इन्द्रियों की क्रियाओं और जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति तीनों अवस्थाओं का साक्षी भाव रख कर कर्म के द्वारा मोक्ष प्राप्त करता है।
कर्मयोगी निरन्तर निःस्वार्थ सेवा से अपना चित्त शुद्ध कर लेता है। वह कर्म फल की आशा न रखता...
कर्मयोग का रहस्य (भाग 4)
पश्चिम में तथा अमरीका में बहुत से धनी लोग बेशुमार दान करते हैं, वे बड़े बड़े अस्पताल और बड़ी बड़ी संस्थाएँ बनाते हैं। वे यह सब कुछ केवल सहानुभूति और मनुष्य जाति पर दया करने के नाते ही करते हैं, उनके लिए यह सब समाज सेवा है और ईश्वर समाज का आधार है और मनुष्य ईश्वर का व्यक्तित्व प्रकट करता है। वे अभिमान रहित होकर कर्त्तापन की बुद्धि को छोड़ कर और फल की आशा को छोड़कर सेवा नहीं करते, उनके लिए यह सेवायोग (कर्मयोग) नहीं है।
उनके वास्ते यह सेवा केवल दान विषयक कर्म है, उनके लिए सेवा केवल मनुष्यता का धर्म है, उनमें किसी दर्जे तक मनुष्य−जाति के लिये सहानुभूति इस सेवा के द्वारा बढ़ जाती है, उनको कर्मयोग के अभ्यास से चित्त शुद्धि करके आत्मज्ञान प्राप्त करने का विचार नहीं...